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.जल रहें हैं दीये मेरे चारो तरफ़ ……..

kavita
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.जल रहें हैं दीये मेरे चारो तरफ़

फिर भी जाने मुझे क्यों अँधेरा लगे .
ये है इंसां की फ़ितरत बहुत ही बुरी ,
चाहे जितना मिले उसको थोड़ा लगे .
चाहे परवाज़ जितनी बुलंदी पे हो ,
याद रखो ज़मीं को हमेशा ,
है आज़ादी बहुत ही जरूरी मगर ,
ये भी लाजिम है थोड़ा सा पहरा लगे .
जैसे ही पूरी हो इक तमन्ना
दूसरी आ जाये उसकी जगह ,
दौड़ते -दौड़ते  पांव शल हो गये
इन सराबों का मन में बसेरा लगे .
इतने मसरूफ हो गयें हैं सभी
की पड़ोसी से भी मिल न सके ,
रोज़ी -रोटी में ऐसे उलझे रहे
घर और ऑफिस का ही फेरा लगे .

बदला इंसान तो बदली आबोहवा बदला इंसान तो बदली आबोहवा

जाने सज़ा है या है मज़ा ,जाने सज़ा है या है मज़ा ,
चूल्हे मिटटी के और सब दीये खो गये चूल्हे मिटटी के और सब दीये खो गये
रौशनी तेज़ हो तो अँधेरा लगे .रौशनी तेज़ हो तो अँधेरा लगे .
कब से बैठी हूँ नजरें बिछाये हुए कब से बैठी हूँ नजरें बिछाये हुए
आमदे मौसमें बहार भी हो ,आमदे मौसमें बहार भी हो ,
जर्द  पत्तें हैं हर सिम्त बिखरे हुए जर्द  पत्तें हैं हर सिम्त बिखरे हुए
मेरे आँगन में पतझड़ का डेरा लगे मेरे आँगन में पतझड़ का डेरा लगे
परवाज़ =उड़ान ,लाज़िम=जरूरी
शल =बोझल ,सराब=तृष्णा
आबोहवा =जलवायु ,ज़र्द =पीले






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